Searching...
Sunday 9 June 2013

क्या भारतीय सिनेमा समलैंगिकता को बढ़ावा दे रहा है?



















हाल ही में बंगाली और हिंदी फिल्मों के प्रख्यात निर्देशक ऋतुपर्णो घोष का निधन हो गया। ऋतुपर्णो घोष खुद समलैंगिक थे और इसी विषय पर उन्होंने कई फिल्मों का भी निर्देशन कर समलैंगिकों के अधिकारों जैसा मुद्दा उठाया। एक ओर तो परंपरागत भारतीय समाज कभी समलैंगिकता को अपने भीतर शामिल नहीं होने दे सकता लेकिन आधुनिक मानसिकता से ग्रस्त वर्तमान विचारधारा समलैंगिकता के पक्ष में जाती दिखाई दे रही है। लेकिन एक तथ्य यह भी है कि आम जनता से अगर कोई खुद को समलैंगिक घोषित कर अपने अधिकारों की मांग करता है तो उसे घृणित नजरों से देखा जाता है लेकिन वहीं अगर कोई प्रख्यात सिलेब्रिटी पुरुष होने के बावजूद महिलाओं के परिधान, उनकी वेश-भूषा पहनकर सामने आता है तो उसे रोल मॉडल मानकर स्वीकार कर लिया जाता है। 12 राष्ट्रीय पुरस्कार जीत चुके ऋतुपर्णो घोष का व्यक्तित्व भी कुछ ऐसा ही था जिसे ना सिर्फ काफी सराहा गया बल्कि उन्हें एक आदर्श की भांति मीडिया और बॉलिवुड के गलियारों में प्रवेश भी दिया गया।

बॉलिवुड हमेशा से ही भारतीयों जन सामान्य को आकर्षित और प्रेरित करता रहा है। हालत यह है कि सिनेमा के पर्दे पर दिखाई गई चीजों और सिलेब्रिटियों की जीवनशैली में खुद को ढालने के लिए हर वर्ग का भारतीय उत्सुक रहता है। ऐसे में ऋतुपर्णो घोष जैसे सिलेब्स को मुख्य धारा में ना सिर्फ जोड़ना बल्कि उन्हें आदर्श बनाकर पेश करना एक बहुत बड़ी बहस का विषय बन गया है कि क्या बॉलिवुड ही समाज में समलैंगिकता को बढ़ावा दे रहा है? क्या एक समलैंगिक व्यक्ति को आदर्श की भांति दिखाकर सिनेमा समलैंगिकता पर ढकी परत को हटाने का प्रयास कर रहा है?

बुद्धिजीवियों का एक वर्ग जो इस बात पर सहमति रखता है कि बॉलिवुड ही आम जन मानस को प्रभावित कर समलैंगिकता के पक्ष में खड़ा है, का कहना है कि बॉलिवुड की चहल-पहल आम जनता को प्रभावित करती है। खुले तौर पर सिलेब्रिटीज का खुद को समलैंगिक स्वीकारना और इसके बाद एक रोल मॉडल, आत्मविश्वासी और स्वतंत्र व्यक्तित्व की तरह मीडिया द्वारा उन्हें लाइम लाइट में खड़ा कर देना समलैंगिकता को सीधे-सीधे बढ़ावा दे रहा है। भारतीय परिदृश्य में पूर्णत: घृणित मानी जाने वाली ऐसी हरकतों को शह देकर सिनेमा समाज को गर्त की खाई में ढकेलने का काम कर रहा है। सिनेमा से ताल्लुक रखने वाले समलैंगिक व्यक्ति की छवि एक रोल मॉडल की तरह बनाने से दो बड़े नकारात्मक प्रभावों का सामना करना पड़ता है, एक तो वे लोग जो खुद को समलैंगिक मानते हैं, जो अभी तक पर्दे के पीछे ही रहते थे वे खुलकर सामने आकर अपने अधिकारों की मांग करने लगेंगे वहीं दूसरी ओर ऐसे लोगों को देखकर वो लोग जो समलैंगिक हैं भी नहीं उनके स्वभाव और सेक्सुअल प्राथमिकताओं में अंतर आने लगेगा। सिनेमा समाज का आइना होता है, सच के नाम पर जो दिखाया जाता है वह किस तरह जन मानस को प्रभावित करता है इस बात को भी समझना चाहिए।

वहीं दूसरी ओर उदार मानसिकता वाले बुद्धिजीवियों, जो ना तो समलैंगिकता के विरोधी हैं और ना ही समलैंगिक व्यक्ति को सिलेब्रिटी की तरह दर्शाने में ही उन्हें किसी तरह की परेशानी नजर आती है, का मत है कि यौनेच्छा प्रत्येक व्यक्ति का बेहद निजी मामला है। समलैंगिक व्यक्ति भी एक इंसान है और उसे इंसान होने के नाते सभी अधिकार उसी तरह मिलने चाहिए जो अन्य किसी को भी मिलते हैं। वह चाहे कोई सिलेब्रिटी हो या फिर आम व्यक्ति, अगर वह कुछ अच्छा कर रहे हैं या उनके कामों से किसी को प्रेरणा मिल रही है तो उन्हें आदर्श बयां करने में किसी को क्या आपत्ति हो सकती है? इतना ही नहीं, इस वर्ग में शामिल लोगों का यह भी कहना है कि अगर भारतीय सिनेमा द्वारा समलैंगिक अधिकारों की पैरवी की भी जा रही है तो इसमें बुराई क्या है, यह अधिकार की मांग है और हक तो मिलना ही चाहिए। ऐसे लोगों का मानना है कि समलैंगिकता हमेशा से ही समाज का हिस्सा रही है और इसके प्रचार में बॉलिवुड का सिनेमा को दोष देना बेहद बचकाना सा लगता है।

समलैंगिकता और सिनेमा के आपसी संबंध पर चर्चा करने के बाद उपरोक्त प्रश्न हमारे सामने उपस्थित हैं, जिनका जवाब ढूंढ़ना बेहद आवश्यक है, जैसे:
1. क्या वाकई भारतीय सिनेमा ही समलैंगिकता को बढ़ावा देकर उसे समाज का हिस्सा बना रहा है?
2. एक समलैंगिक व्यक्ति को रोल मॉडल बनाकर पेश करना क्या समाज के लिए हानिकारक है?
3. अगर सिनेमा समलैंगिक व्यक्तियों के अधिकारों की पैरवी कर रहा है, उन्हें पहचान दिलवा रहा है तो उसमें गलत क्या है?
4. क्या समलैंगिकता विदेशी फिल्मों और भारतीय सिनेमा के मिलन का उपोत्पाद है?
5. भारतीय परिदृश्य के अनुसार समलैंगिक अधिकारों की मांग कितनी जायज है?

0 comments:

Post a Comment

 
Back to top!